सोमवार, 4 मई 2009

व्यंग लेख: आँसू का व्यापार -शोभना चौरे

घर के सारे कामों से निवृत्त होकर अख़बार पढ़ने बैठी तो बाहर से आवाज़ सुनाई दी, आँसू ले लो आँसू .........
मैं ध्यान से सुनने लगी। मुझे शब्द साफ-साफ सुनायी नहीं दे रहे थे।
कुछ देर बाद आवाज पास आई और उसने फ़िर से वही दोहराया तब मुझे स्पष्ट समझ में आया वो आँसू बेचने वाला ही था।
मै उत्सुकतावश बाहर आई अभी तक सब्जी, अख़बार, दूध, झाडू, अचार, पापड़, बड़ी, चूड़ी आदि यहाँ तक कि हर तीसरे दिन बडे-बडे कालीन बेचनेवाले आते देखे थे। मुझे समझ नहीं आता कि इतने छोटे-छोटे घरों में इतने बडे-बडे कालीन कौन खरीदता है? और वो भी इतने मँहगे? मैं तो फेरीवालों से कभी १०० रु. से ज्यादा का सामान नहीं खरीदती पर यह मेरी सोच है। शायद दूसरे लोग खरीदते होगे? तभी तो बेचने आते हैं या फ़िर उनके रोज-रोज आने से लोग खरीदने पर मजबूर हो जाते हों... राम जाने? किंतु आँसू? क्या आँसू भी कोई खरीदने की चीज़ है?
मैंने उसे आवाज दी वह १६- १७ साल का पढ़ा-लिखा दिखनेवाला लड़का था।
मैंने उससे पूछा: 'आँसू बेचते हो? यह तो मैंने पहले कभी नहीं सुना? आँसू तो इन्सान की भावनाओं से जुड़े होते हैं। वे तो अपने आप ही आँखों से बरस पड़ते हैं। रही बात नकली आँसुओं की तो फिल्मों और दूरदर्शन में रात-दिन बहते हुए देखते ही हैं उसके लिए तो बरसों से ग्लिसरीन का इस्तेमाल होता है। तुम कौन से आँसू बेचते हो?'
'' बाई साब ! आप देखिये तो सही मेरे पास कई तरह के आँसू हैं। आप ग्लिसरीन को जाने दीजिये। वह तो परदे की बात है। ये तो जीवन से जुड़े हैं।'' यह कहकर उसने एक छोटासा पेटीनुमा थैला निकाला। उसमें छोटी-छोटी रंग-बिरगी शीशियाँ थीं जिनमें आँसू भरे थे।
मैंने फ़िर उसकी चुटकी ली: 'बिसलेरी का पानी भर लाये हो और आँसू कहकर बेचते हो?'
उसने अपने चुस्त-दुरुस्त अंदाज में कहा- 'देखिये, इस सुनहरी शीशी में वे आँसू है जिन्हें दुल्हनें आजकल अपनी बिदाई पर भी इसलिए नहीं बहातीं कि उनका मेकप खराब न हो जाए। इस शीशी को पर्ची लगाकर दुल्हन के सामान के साथ सजाकर रख दो। उसे जब कभी मायके की याद आयेगी तो यह शीशी देखकर उसकी आँखों में आँसू आ जायेंगे'। उसने बहुत ही आत्म विश्वास से कहा।
मैंने कहा- 'मेरी तो कोई लड़की नहीं है'।
उसने तपाक से कहा- ''बहू तो होगी? नहीं है तो आ जायेगी'' और झट से बैंगनी रंग की शीशी निकालकर कहा: ''उसके लिए लेलो उसे भी तो अपने मायके की याद आयेगी।''
'अच्छा छोड़ो बताओ और कौन-कौन से आँसू हैं?'
उसने गहरे नीले रंग की शीशी निकाली और कहने लगा: ''ये देखिये, इसमें बम धमाकों में मरनेवालों के रिश्तेदारों के आँसू हैं जो सिर्फ़ राजनेता ही खरीदते हैं। ये फिरोजी रंग की शीशी में दंगे में मरनेवालों के अपनों के आँसू हैं जो सिर्फ़ डॉन खरीदते हैं। ...ये हरे रंग के असली आँसू उन औरतों के हैं जो बेवजह रोती हैं । इन्हें समाजसेवक खरीदते हैं।
''मैं स्तब्ध थी। मुझे चुप देखकर उसने दुगुने उत्साह से बताना शुरू किया: ''देखिये, ये पीले और नारगी रंग की शीशी के आँसू ज्ञान देते हैं। इन्हें सिर्फ़ प्रवचन देनेवाले साधू महात्मा ही खरीदते हैं। ये जो लाल रंग की शीशी में आँसू हैं, ये तो चुनावों के समय हमारे देश में सबसे अधिक बिकते हैं। इसे हर राजनैतिक दल का बन्दा खरीदता है। ''
मैंने एक सफेद खाली शीशी की तरफ इशारा किया और पूछा: 'इसमें तो कुछ भी नहीं है?'
उसने कहा: ''इसमे वे आँसू हैं जो लोग पी जाते हैं। इन्हें कोई नहीं खरीदता''फ़िर वह और भी कई तरह के आँसू बताता रहा।
मै सुस्त हो रही थी, अचानक पूछ बैठी: 'अच्छा इनके दाम तो बताओ?'उसने कहा: ''दाम की क्या बात है पहले इस्तेमाल तो करके देखिये अगर फायदा हो तो दो आँसू दे देना मेरे भंडार में इजाफा हो जायेगा।
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7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही करारा व्‍यंग्‍य है। समाज इन्‍हीं नकली आँसुओं को दिखा-दिखाकर लोगों को डराता है जबकि असली आँसू तो जिन आँखों से बहते हैं उन्‍हें कोई नहीं देख पाता।

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  2. मन को झकझोरने वाला लेख............अच्छा लगा।

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  3. कटाक्ष और संवेदना से भरपूर व्‍यंग्‍य हृदय में उतर गया है । साहित्‍य शिल्‍पी पर भी आपको पढ़ता रहता हूं । इसी तरह लिखते रहिए ।

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  4. वाह वाह ..
    '' बाई साब ! आप देखिये तो सही मेरे पास कई तरह के आँसू हैं। यह कहकर उसने एक छोटासा पेटीनुमा थैला निकाला। उसमें छोटी-छोटी रंग-बिरगी शीशियाँ थीं जिनमें आँसू भरे थे।
    उसने अपने चुस्त-दुरुस्त अंदाज में कहा- 'देखिये, इस सुनहरी शीशी में वे आँसू है जिन्हें दुल्हनें आजकल अपनी बिदाई पर भी इसलिए नहीं बहातीं कि उनका मेकप खराब न हो जाए। इस शीशी को पर्ची लगाकर दुल्हन के सामान के साथ सजाकर रख दो।
    बात निराली .., अंदाजे बयाँ निराला ...'
    आपका स्वागत है ,हमारी शुभकामनाए स्वीकार करें .. मक्

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  5. aap sabhi ko hardik dhnywad jo apne meri rchna ko saraha .blog jagt me svagat ke liye bhi dhnyvad.

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