बुधवार, 6 मई 2009

सूक्ति सलिला: प्रो. बी.पी.मिश्र 'नियाज़' / सलिल

विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।

इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नगर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'


'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।

सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-

Discontent असंतोष :

'Happy thou are not,
For what thou hast not, still thou strivest to get,
And what thou hast, forgetest.'

जीवन में सुख क्योंकर आए?
जो अप्राप्य है, उसके पीछे तू मन को भटकाए।
और पास है जो निधि, निष्ठुर! तू उसको ठुकराए॥

जो कुछ भी तुझको मिला, उसे गया तू भूल।
जो न मिला वह चाहकर, ख़ुद चुनता है शूल॥

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सोमवार, 4 मई 2009

व्यंग लेख: आँसू का व्यापार -शोभना चौरे

घर के सारे कामों से निवृत्त होकर अख़बार पढ़ने बैठी तो बाहर से आवाज़ सुनाई दी, आँसू ले लो आँसू .........
मैं ध्यान से सुनने लगी। मुझे शब्द साफ-साफ सुनायी नहीं दे रहे थे।
कुछ देर बाद आवाज पास आई और उसने फ़िर से वही दोहराया तब मुझे स्पष्ट समझ में आया वो आँसू बेचने वाला ही था।
मै उत्सुकतावश बाहर आई अभी तक सब्जी, अख़बार, दूध, झाडू, अचार, पापड़, बड़ी, चूड़ी आदि यहाँ तक कि हर तीसरे दिन बडे-बडे कालीन बेचनेवाले आते देखे थे। मुझे समझ नहीं आता कि इतने छोटे-छोटे घरों में इतने बडे-बडे कालीन कौन खरीदता है? और वो भी इतने मँहगे? मैं तो फेरीवालों से कभी १०० रु. से ज्यादा का सामान नहीं खरीदती पर यह मेरी सोच है। शायद दूसरे लोग खरीदते होगे? तभी तो बेचने आते हैं या फ़िर उनके रोज-रोज आने से लोग खरीदने पर मजबूर हो जाते हों... राम जाने? किंतु आँसू? क्या आँसू भी कोई खरीदने की चीज़ है?
मैंने उसे आवाज दी वह १६- १७ साल का पढ़ा-लिखा दिखनेवाला लड़का था।
मैंने उससे पूछा: 'आँसू बेचते हो? यह तो मैंने पहले कभी नहीं सुना? आँसू तो इन्सान की भावनाओं से जुड़े होते हैं। वे तो अपने आप ही आँखों से बरस पड़ते हैं। रही बात नकली आँसुओं की तो फिल्मों और दूरदर्शन में रात-दिन बहते हुए देखते ही हैं उसके लिए तो बरसों से ग्लिसरीन का इस्तेमाल होता है। तुम कौन से आँसू बेचते हो?'
'' बाई साब ! आप देखिये तो सही मेरे पास कई तरह के आँसू हैं। आप ग्लिसरीन को जाने दीजिये। वह तो परदे की बात है। ये तो जीवन से जुड़े हैं।'' यह कहकर उसने एक छोटासा पेटीनुमा थैला निकाला। उसमें छोटी-छोटी रंग-बिरगी शीशियाँ थीं जिनमें आँसू भरे थे।
मैंने फ़िर उसकी चुटकी ली: 'बिसलेरी का पानी भर लाये हो और आँसू कहकर बेचते हो?'
उसने अपने चुस्त-दुरुस्त अंदाज में कहा- 'देखिये, इस सुनहरी शीशी में वे आँसू है जिन्हें दुल्हनें आजकल अपनी बिदाई पर भी इसलिए नहीं बहातीं कि उनका मेकप खराब न हो जाए। इस शीशी को पर्ची लगाकर दुल्हन के सामान के साथ सजाकर रख दो। उसे जब कभी मायके की याद आयेगी तो यह शीशी देखकर उसकी आँखों में आँसू आ जायेंगे'। उसने बहुत ही आत्म विश्वास से कहा।
मैंने कहा- 'मेरी तो कोई लड़की नहीं है'।
उसने तपाक से कहा- ''बहू तो होगी? नहीं है तो आ जायेगी'' और झट से बैंगनी रंग की शीशी निकालकर कहा: ''उसके लिए लेलो उसे भी तो अपने मायके की याद आयेगी।''
'अच्छा छोड़ो बताओ और कौन-कौन से आँसू हैं?'
उसने गहरे नीले रंग की शीशी निकाली और कहने लगा: ''ये देखिये, इसमें बम धमाकों में मरनेवालों के रिश्तेदारों के आँसू हैं जो सिर्फ़ राजनेता ही खरीदते हैं। ये फिरोजी रंग की शीशी में दंगे में मरनेवालों के अपनों के आँसू हैं जो सिर्फ़ डॉन खरीदते हैं। ...ये हरे रंग के असली आँसू उन औरतों के हैं जो बेवजह रोती हैं । इन्हें समाजसेवक खरीदते हैं।
''मैं स्तब्ध थी। मुझे चुप देखकर उसने दुगुने उत्साह से बताना शुरू किया: ''देखिये, ये पीले और नारगी रंग की शीशी के आँसू ज्ञान देते हैं। इन्हें सिर्फ़ प्रवचन देनेवाले साधू महात्मा ही खरीदते हैं। ये जो लाल रंग की शीशी में आँसू हैं, ये तो चुनावों के समय हमारे देश में सबसे अधिक बिकते हैं। इसे हर राजनैतिक दल का बन्दा खरीदता है। ''
मैंने एक सफेद खाली शीशी की तरफ इशारा किया और पूछा: 'इसमें तो कुछ भी नहीं है?'
उसने कहा: ''इसमे वे आँसू हैं जो लोग पी जाते हैं। इन्हें कोई नहीं खरीदता''फ़िर वह और भी कई तरह के आँसू बताता रहा।
मै सुस्त हो रही थी, अचानक पूछ बैठी: 'अच्छा इनके दाम तो बताओ?'उसने कहा: ''दाम की क्या बात है पहले इस्तेमाल तो करके देखिये अगर फायदा हो तो दो आँसू दे देना मेरे भंडार में इजाफा हो जायेगा।
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सूक्ति सागर : Delay विलंब, प्रो. बी.पी. मिश्रा'नियाज़' / सलिल

विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं।


डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'


'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।'


आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।


सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-

Delay विलंब, देर :

We waste our lights in vain, like lamps by day.

- यदि विलंब है, दिवा दीप के तुल्य हमारी ज्योति व्यर्थ है।

दिन में जगमग दीप निज, ज्योति करे ज्यों व्यर्थ।

त्यों ही हुआ विलंब तो, होता 'सलिल' अनर्थ॥

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रविवार, 3 मई 2009

लघुकथा: जंगल में जनतंत्र -आचार्य संजीव 'सलिल'

जंगल में चुनाव होनेवाले थे।

मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे।- ' जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर कदम रखिये। सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये।'

' मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद। आपके कागज़ घर पर दे आया हूँ। ' भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया। मंत्री जी खुश हुए।

तभी उल्लू ने आकर कहा- 'अब तो बहुत धांसू बोलने लगे हैं। हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिए रखी' और एक लिफाफा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया।

विभिन्न महकमों के अफसरों उस अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी मंत्री जी को दी।

समाजवादी विचार धारा के मंत्री जी मिले उपहारों और लिफाफों को देखते हुए सोच रहे थे - 'जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद। '
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पुस्तक पवित्रा : फारसी-हिन्दी कोश -अजित वडनेरकर

भा रत में इस्लामी दौर के करीब एक हजार सालों में फारसी इस मुल्क के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण रही। विदेशी हमलावरों और शासक वर्ग की भाषा होने के बावजूद मूलतः आर्य भाषा परिवार की होने की वजह से यह प्राचीन ईरान और हिन्दुस्तान की साझी सांस्कृतिक विरासत का सू्त्र भी रही। इसीलिए अरबी की तुलना में हिन्दी ने फारसी को सहजता से ग्रहण किया। कबीर, सूर, तुलसी, जायसी के काव्य से फारसी के शब्द निकाल दिये जाएं तो रचनाओं की भावाभिव्यक्ति पर असर पड़े बिना नहीं रहेगा। बादशाहों के दौर में फारसी-हिन्दी कोश निकले होंगे जो अब अनुपलब्ध हैं और हिन्दी में इस दिशा में कभी कोई पहल हुई नहीं। इसके बावजूद एक फारसी-हिन्दी कोश निकला है जो इसके योजनाकारों और संपादकमंडल पर कई सवाल खड़े करता है। जिस रूप में यह प्रकाशित हुआ उससे और किसी का भला हो जाए कम से कम हिन्दी भाषा प्रेमियों का तो नहीं होने वाला। उलटे हम जैसे भाषा विज्ञान और हिन्दी के छात्र का समय और धन भी व्यर्थ गया। पुस्तक चर्चा के तहत आज हम उसी शब्दकोश की चर्चा कर रहे हैं। यह समीक्षा नहीं, आपबीती है। इसमें से आप समीक्षामूलक तत्वों का निर्वचन कर सकते हैं। अरसे से हमें हिन्दी-फारसी शब्दकोश की तलाश थी। इस बीच दो साल पहले पता चला था कि हिन्दी-फ़ारसी शब्दकोश के किसी उद्यम से त्रिलोचन शास्त्री जुड़े हैं। भोपाल के चांदना बुक स्टोर्स ने हमारे लिए फारसी-हिन्दी शब्दकोश तलाश लिया। करीब बारह सौ पृष्ठों और दो खंडों वाले इस शब्दकोश का मूल्य 1400 रुपए है। इत्मीनान से इसे देखने पर हमें न सिर्फ यह कीमत फ़िजू़ल लग रही है बल्कि ये हमारी दुखती रग बन गया है। शेल्फ पर रखी इसकी दोनों ज़िल्दें देखकर खून खौल जाता है कि गाढ़ी कमाई के 1400 रुपए यूं ज़ाया हो गए बल्कि भाषा विज्ञान के एक छात्र के लिए इसके ज़रिये दूसरी भाषा के समाज, संस्कृति की जानकारी पाने की हसरत मिट्टी में मिल गई। यह शब्दकोश ईरान कल्चर हाऊस और राजकमल प्रकाशन से पब्लिश हुआ है। यह योजना मूलतः ईरान कल्चर हाऊस की है और संभवतः इसमें उन्हीं का धन भी व्यय हुआ है। इस कोश को देखकर एक ही सवाल मन में आता है यह किस वर्ग के लिए उपयोगी होगा। इसके योजनाकार या तो इसे उपयोगी बनाने के लिए मेहनत नहीं कर सके, या फिर कोशकला के विशेषज्ञों को इसके साथ जोड़ नहीं पाए। लगता है हड़बड़ी और जल्दबाजी में इसे छापा गया है। इसका नाम फारसी-हिन्दी कोश है। मगर सामान्य हिन्दी भाषी की तो क्या कहें लगातार शब्दकोशों के बीच रहने वाले अध्येता भी इसमें उलझनकर रह जाएं। इस कोश की रचना यह मानकर की गई है कि जो भी इसका इस्तेमाल करेगा उसे फारसी आती ही होगी। शब्दकोश में किसी भी फारसी शब्द को फारसी लिपि में लिखा गया है या अंग्रेजी में। कोशकार इस पूर्वग्रह के भी शिकार नजर आते हैं कि फारसी शब्दकोश को फारसी भाषा की तरह ही दाएं से बाएं (RTL राइट टू लैफ्ट) शुरु होना चाहिए जबकि हिन्दी का स्वभाव बांएं से दाएं (LTR लैफ्ट टू राईट) है। कोश सामान्य हिन्दी पुस्तकों की तरह बाएँ से दाएं खुलता है। संपादकीय वक्तव्य, प्रकाशक का वक्तव्य आदि के बाद कोश की विशेषताओं का ... त्रिलोचन शास्त्री जैसे विद्वान जिस कोश परियोजना से जुड़ कर उससे छिटक चुके हों, वह कोश जबसे हमारे हाथ लगा है, दुखती रग बन गया है। शेल्फ पर रखी इसकी दोनों ज़िल्दें देखकर खून खौल जाता है कि गाढ़ी कमाई के 1400 रुपए यूं ज़ाया हो गए... बखान जैसे कर्मकांड इसी तरह पूरे हुए हैं। जब आप कोश का उपयोग करना चाहते हैं तो पता चलता है कि आप इसकी शुरुआत में नहीं बल्कि अंत में हैं। अब आपको इस कोश को अरबी-फारसी ग्रंथो की तरह से RTL क्रम में खोलना पड़ता है। यहां एक और पहाड़ टूटता है। वर्णानुक्रम सूची जो किसी भी कोश के लिए सबसे ज़रूरी होती है, फारसी लिपि में दी हुई है। अब हिन्दी वाले को क्या पता कि फारसी का प्रथम वर्ण क्या है? इसे अगर रोमन मे दिया जाता और साथ में समानान्तर हिन्दी वर्ण का भी उल्लेख होता तो ही यह हिन्दी शोधार्थी के लिए उपयोगी रहता। सभी शब्दों की शुरुआत फारसी और रोमन में हुई है। इस विसंगति के बाद मैं यह सोचकर आश्वस्त था कि चलिए कोई बात नहीं, शायद यह रोमन वर्णानुक्रम में है, तो भी कोई दिक्कत नहीं। मगर जब उस नज़रिये से इसे देखा तो भी मायूसी हाथ आई। रोमन वर्णानुक्रम में भी टालू अंदाज़ है जिसे इस कोश में ध्वनि संकेताक्षर सूची कहा गया है। पहले रोमन में फारसी अक्षर का उच्चारण लिखा गया है, फिर फारसी लिपि में उस अक्षर को बताया गया है जिसके आगे उस वर्ण की व्याख्या फारसी में है। एक मिसाल देखिये। सूची के छब्बीसवें क्रम पर रोमन में लिखा गया है x जिसका हिन्दी में उच्चारण क्स किया जाता है। जबकि फारसी के ख़ उच्चारण के लिए रोमन x में ध्वनि संकेत चुना गया है। आम हिन्दी भाषी यह नहीं जानता। हर फारसी वर्ण से पहले अगर उसका स्थानापन्न हिन्दी वर्ण भी लिख दिया गया होता तो यह कोश सचमुच उपयोगी होता। प्रथम खंड के मुखपृष्ठ पर लिखा गया है अलिफमद से शीन तक। इसके बाद पूरे कोश में कहीं देवनागरी में अलिफ मद शब्द पढ़ने को नहीं मिलता। अब हमें क्या पता कि अलिफ कहां है और मद कहां है और वे कैसे नज़र आते हैं। अलबत्ता हिन्दी का अ और अंग्रेजी का A ज़रूर पहचान लेते हैं। कोश में फारसी वर्णानुक्रम है, जो इसलिए खटकता है क्योंकि उसे लिखा भी फारसी लिपि में ही है। अब शोधार्थी को इतनी फारसी ही आती तो इस कोश की ज़रूरत क्या थी? कोश का दाएं से बाएं (RTL ) खुलना भी हिन्दी वालों के लिए असुविधाजनक है। यह निर्णय एकदम अतार्किक है। सभी शब्द सिर्फ रोमन या फारसी में लिखे हैं जबकि उनकी व्याख्या देवनागरी में है। अगर यह सिर्फ फारसीदां शोधार्थियों के लिए है तो फिर शब्दों की व्याख्या भी फारसी में ही ट्रांसलिट्रेट की जा सकती थी। चैम्बर्स की प्रसिद्ध ट्रांस लिट्रेटेड हिन्दी-इंग्लिश डिक्शनरी में अल्फाबेटिक क्रम में ही हिन्दी शब्दों को लिखा गया है। ऐसा ही यहां भी किया जा सकता था। मिसाल के तौर मुझे अगर नामावरी शब्द का अर्थ जानना है तो मैं सीधे एन (N) पर जाकर इसे तलाशूंगा। मगर यहां ऐसा नहीं है। नामावरी मुझे हिन्दी में भी लिखा नहीं मिलेगा। बल्कि मुझे मिलेगा फारसी में लिखे गए नून के क्रम में। मुझे नहीं पता कि नून पहले खंड में आया है या दूसरे में क्योंकि मैं फारसी जानता नहीं। अब भरोसा है सिर्फ रोमन पर जहां यह nam-avar-i के अंदाज़ में लिखा मिलेगा, अगर उस पर मेरी निगाह टिक जाए। क्योंकि इससे पहले यही शब्द फारसी लिपि में लिखा हुआ होगा। इसी तरह किसी भी शब्द की तलाश एक मुश्किल काम है। एक शब्द को ढूंढने में आधा घंटा लग जाता है। संपादकों की एक और मूर्खता यह कि बारह सौ पेजों के इस कोश में पृष्ठ संख्या तक फारसी में दी हुई है। इसे भी अंग्रेजी या हिन्दी में देने की समझदारी नहीं दिखाई गई है। इस कोश के योजनाकारों को इसके अगले संस्करण में ये तमाम ग़लतियां दुरुस्त करनी चाहिए। वर्ना हिन्दी को कब तक एक अच्छे फारसी हिन्दी कोश से वंचित रहना होगा, कौन जाने। यह स्पष्ट ही सोचा जा सकता है कि त्रिलोचन जैसे शब्दप्रेमी क्यों इस परियोजन के साथ टिक न पाए।

शनिवार, 2 मई 2009

अनुवाद सूक्ति कोष: Death मृत्यु : प्रो. बी.प. मिश्र 'निआज़' / सलिल

विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं।

डॉ अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'

'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।'

आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।

सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-

Death मृत्यु :

The undiscovered country from whose bourn no traveller returns.

- मृत्यु वह अज्ञात प्रदेश है जहाँ गया हुआ कोई यात्री वापिस नहीं लौटता।

मृत्यु देश अनजान है, सका न कोई जान।

जाके फ़िर लौटा नहीं, कभी 'सलिल' इंसान॥

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