रविवार, 3 मई 2009

पुस्तक पवित्रा : फारसी-हिन्दी कोश -अजित वडनेरकर

भा रत में इस्लामी दौर के करीब एक हजार सालों में फारसी इस मुल्क के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण रही। विदेशी हमलावरों और शासक वर्ग की भाषा होने के बावजूद मूलतः आर्य भाषा परिवार की होने की वजह से यह प्राचीन ईरान और हिन्दुस्तान की साझी सांस्कृतिक विरासत का सू्त्र भी रही। इसीलिए अरबी की तुलना में हिन्दी ने फारसी को सहजता से ग्रहण किया। कबीर, सूर, तुलसी, जायसी के काव्य से फारसी के शब्द निकाल दिये जाएं तो रचनाओं की भावाभिव्यक्ति पर असर पड़े बिना नहीं रहेगा। बादशाहों के दौर में फारसी-हिन्दी कोश निकले होंगे जो अब अनुपलब्ध हैं और हिन्दी में इस दिशा में कभी कोई पहल हुई नहीं। इसके बावजूद एक फारसी-हिन्दी कोश निकला है जो इसके योजनाकारों और संपादकमंडल पर कई सवाल खड़े करता है। जिस रूप में यह प्रकाशित हुआ उससे और किसी का भला हो जाए कम से कम हिन्दी भाषा प्रेमियों का तो नहीं होने वाला। उलटे हम जैसे भाषा विज्ञान और हिन्दी के छात्र का समय और धन भी व्यर्थ गया। पुस्तक चर्चा के तहत आज हम उसी शब्दकोश की चर्चा कर रहे हैं। यह समीक्षा नहीं, आपबीती है। इसमें से आप समीक्षामूलक तत्वों का निर्वचन कर सकते हैं। अरसे से हमें हिन्दी-फारसी शब्दकोश की तलाश थी। इस बीच दो साल पहले पता चला था कि हिन्दी-फ़ारसी शब्दकोश के किसी उद्यम से त्रिलोचन शास्त्री जुड़े हैं। भोपाल के चांदना बुक स्टोर्स ने हमारे लिए फारसी-हिन्दी शब्दकोश तलाश लिया। करीब बारह सौ पृष्ठों और दो खंडों वाले इस शब्दकोश का मूल्य 1400 रुपए है। इत्मीनान से इसे देखने पर हमें न सिर्फ यह कीमत फ़िजू़ल लग रही है बल्कि ये हमारी दुखती रग बन गया है। शेल्फ पर रखी इसकी दोनों ज़िल्दें देखकर खून खौल जाता है कि गाढ़ी कमाई के 1400 रुपए यूं ज़ाया हो गए बल्कि भाषा विज्ञान के एक छात्र के लिए इसके ज़रिये दूसरी भाषा के समाज, संस्कृति की जानकारी पाने की हसरत मिट्टी में मिल गई। यह शब्दकोश ईरान कल्चर हाऊस और राजकमल प्रकाशन से पब्लिश हुआ है। यह योजना मूलतः ईरान कल्चर हाऊस की है और संभवतः इसमें उन्हीं का धन भी व्यय हुआ है। इस कोश को देखकर एक ही सवाल मन में आता है यह किस वर्ग के लिए उपयोगी होगा। इसके योजनाकार या तो इसे उपयोगी बनाने के लिए मेहनत नहीं कर सके, या फिर कोशकला के विशेषज्ञों को इसके साथ जोड़ नहीं पाए। लगता है हड़बड़ी और जल्दबाजी में इसे छापा गया है। इसका नाम फारसी-हिन्दी कोश है। मगर सामान्य हिन्दी भाषी की तो क्या कहें लगातार शब्दकोशों के बीच रहने वाले अध्येता भी इसमें उलझनकर रह जाएं। इस कोश की रचना यह मानकर की गई है कि जो भी इसका इस्तेमाल करेगा उसे फारसी आती ही होगी। शब्दकोश में किसी भी फारसी शब्द को फारसी लिपि में लिखा गया है या अंग्रेजी में। कोशकार इस पूर्वग्रह के भी शिकार नजर आते हैं कि फारसी शब्दकोश को फारसी भाषा की तरह ही दाएं से बाएं (RTL राइट टू लैफ्ट) शुरु होना चाहिए जबकि हिन्दी का स्वभाव बांएं से दाएं (LTR लैफ्ट टू राईट) है। कोश सामान्य हिन्दी पुस्तकों की तरह बाएँ से दाएं खुलता है। संपादकीय वक्तव्य, प्रकाशक का वक्तव्य आदि के बाद कोश की विशेषताओं का ... त्रिलोचन शास्त्री जैसे विद्वान जिस कोश परियोजना से जुड़ कर उससे छिटक चुके हों, वह कोश जबसे हमारे हाथ लगा है, दुखती रग बन गया है। शेल्फ पर रखी इसकी दोनों ज़िल्दें देखकर खून खौल जाता है कि गाढ़ी कमाई के 1400 रुपए यूं ज़ाया हो गए... बखान जैसे कर्मकांड इसी तरह पूरे हुए हैं। जब आप कोश का उपयोग करना चाहते हैं तो पता चलता है कि आप इसकी शुरुआत में नहीं बल्कि अंत में हैं। अब आपको इस कोश को अरबी-फारसी ग्रंथो की तरह से RTL क्रम में खोलना पड़ता है। यहां एक और पहाड़ टूटता है। वर्णानुक्रम सूची जो किसी भी कोश के लिए सबसे ज़रूरी होती है, फारसी लिपि में दी हुई है। अब हिन्दी वाले को क्या पता कि फारसी का प्रथम वर्ण क्या है? इसे अगर रोमन मे दिया जाता और साथ में समानान्तर हिन्दी वर्ण का भी उल्लेख होता तो ही यह हिन्दी शोधार्थी के लिए उपयोगी रहता। सभी शब्दों की शुरुआत फारसी और रोमन में हुई है। इस विसंगति के बाद मैं यह सोचकर आश्वस्त था कि चलिए कोई बात नहीं, शायद यह रोमन वर्णानुक्रम में है, तो भी कोई दिक्कत नहीं। मगर जब उस नज़रिये से इसे देखा तो भी मायूसी हाथ आई। रोमन वर्णानुक्रम में भी टालू अंदाज़ है जिसे इस कोश में ध्वनि संकेताक्षर सूची कहा गया है। पहले रोमन में फारसी अक्षर का उच्चारण लिखा गया है, फिर फारसी लिपि में उस अक्षर को बताया गया है जिसके आगे उस वर्ण की व्याख्या फारसी में है। एक मिसाल देखिये। सूची के छब्बीसवें क्रम पर रोमन में लिखा गया है x जिसका हिन्दी में उच्चारण क्स किया जाता है। जबकि फारसी के ख़ उच्चारण के लिए रोमन x में ध्वनि संकेत चुना गया है। आम हिन्दी भाषी यह नहीं जानता। हर फारसी वर्ण से पहले अगर उसका स्थानापन्न हिन्दी वर्ण भी लिख दिया गया होता तो यह कोश सचमुच उपयोगी होता। प्रथम खंड के मुखपृष्ठ पर लिखा गया है अलिफमद से शीन तक। इसके बाद पूरे कोश में कहीं देवनागरी में अलिफ मद शब्द पढ़ने को नहीं मिलता। अब हमें क्या पता कि अलिफ कहां है और मद कहां है और वे कैसे नज़र आते हैं। अलबत्ता हिन्दी का अ और अंग्रेजी का A ज़रूर पहचान लेते हैं। कोश में फारसी वर्णानुक्रम है, जो इसलिए खटकता है क्योंकि उसे लिखा भी फारसी लिपि में ही है। अब शोधार्थी को इतनी फारसी ही आती तो इस कोश की ज़रूरत क्या थी? कोश का दाएं से बाएं (RTL ) खुलना भी हिन्दी वालों के लिए असुविधाजनक है। यह निर्णय एकदम अतार्किक है। सभी शब्द सिर्फ रोमन या फारसी में लिखे हैं जबकि उनकी व्याख्या देवनागरी में है। अगर यह सिर्फ फारसीदां शोधार्थियों के लिए है तो फिर शब्दों की व्याख्या भी फारसी में ही ट्रांसलिट्रेट की जा सकती थी। चैम्बर्स की प्रसिद्ध ट्रांस लिट्रेटेड हिन्दी-इंग्लिश डिक्शनरी में अल्फाबेटिक क्रम में ही हिन्दी शब्दों को लिखा गया है। ऐसा ही यहां भी किया जा सकता था। मिसाल के तौर मुझे अगर नामावरी शब्द का अर्थ जानना है तो मैं सीधे एन (N) पर जाकर इसे तलाशूंगा। मगर यहां ऐसा नहीं है। नामावरी मुझे हिन्दी में भी लिखा नहीं मिलेगा। बल्कि मुझे मिलेगा फारसी में लिखे गए नून के क्रम में। मुझे नहीं पता कि नून पहले खंड में आया है या दूसरे में क्योंकि मैं फारसी जानता नहीं। अब भरोसा है सिर्फ रोमन पर जहां यह nam-avar-i के अंदाज़ में लिखा मिलेगा, अगर उस पर मेरी निगाह टिक जाए। क्योंकि इससे पहले यही शब्द फारसी लिपि में लिखा हुआ होगा। इसी तरह किसी भी शब्द की तलाश एक मुश्किल काम है। एक शब्द को ढूंढने में आधा घंटा लग जाता है। संपादकों की एक और मूर्खता यह कि बारह सौ पेजों के इस कोश में पृष्ठ संख्या तक फारसी में दी हुई है। इसे भी अंग्रेजी या हिन्दी में देने की समझदारी नहीं दिखाई गई है। इस कोश के योजनाकारों को इसके अगले संस्करण में ये तमाम ग़लतियां दुरुस्त करनी चाहिए। वर्ना हिन्दी को कब तक एक अच्छे फारसी हिन्दी कोश से वंचित रहना होगा, कौन जाने। यह स्पष्ट ही सोचा जा सकता है कि त्रिलोचन जैसे शब्दप्रेमी क्यों इस परियोजन के साथ टिक न पाए।

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